Tuesday, November 3, 2020

सैंतीस का पड़ाव और अंदरूनी ख्वाइशें

ये जन्मदिन भी हर साल की तरह ही एक और साल है 

पर कुछ अंदरूनी इक्षाएं और सवांद सोचा जगजाहिर करूँ सोचा कुछ अपनों से गुफ्तगू करूँ 

फिर मौका हो ना हो सही समय हो न हो 

बचपन बिलकुल याद आ जाता है हर जन्न्मदिन पर तब न इतने विकल्प थे न सोच 

मिल जाती थी बस माँ के हाथ की बनी हुई कुकर की केक क्या मज़े की लगती थी 

वो वाली केक माँ फिर से बना दो फिर सी खिला दो न , न केक मिक्स का कृत्रिमपन न तामझाम 

मोहल्ले के दोस्त आते थे बस घर का एक कोई भी कोना अपनों के लिए सज जाता था और सब साथ मिलके खुशियों के असीम पल चुराते थे जो आज भी एक मस्त याद बनकर दिल में है 

अब जाने कहाँ खो गए सारे दोस्त हाँ कुछ से संयोगवश संपर्क में हूँ जिसके लिए खुद को खुशकिस्मत मानती हूँ 

फिर भी बाकि तो मानो बहुत दूर चले गए माँ बाबूजी भी भाई बहन भी 

हाँ कसूर तो किसी का नहीं शायद यही नियति है आखिर सबकी अपनी जिम्मेदारियां हैं पारिवारिक और व्यक्तिगत 


बचपन के बाद तरुणावस्था के भी दिन याद आ जातें हैं 

बारहवीं के बाद बाबूजी से अपनी जिद से और कुछ सीखने और दुनिया देखने की धुन में हॉस्टल की दुनिया से संपर्क हुआ 

दुनिया कठिन और विचित्र तो लगी पर बाबूजी की सलाहों से सब सुलझ सा गया हर कदम पर 

कालेज भी पटना का भी दिल्ली का भी  ट्रेनिंग्स भी (टाटा स्टील, परफेक्ट रिलेशन्स, एयरटेल )

पर बाबूजी ज्यादा चिंतित थे मैथिल समाज को लेकर सो कॉलेज के बाद ही शादी कर दी 

पर संयोगवश किस्मत ने साथ दिया और पतिदेव निकले पढ़े लिखे और परिपक़्व तो उन्होंने कभी आगे बढ़ने से रोका नहीं

जब चिंतित होती थी जीवन की पहेलियों को समझने में असमर्थ होती थी जैसे ऑफिस की पॉलिटिक्स परिवार का दबाव तो वो हमेशा साथ मिलकर समझते थे मुझे और समस्या हल करने में मदद करते थे 


अनसुलझी फिर भी कुछ गुथियाँ रह गयी जो शायद उनके और हम सबसे परे था 

समझ ही नहीं पायी आजतक कुछ हादसों को जो हमारे जीवन में या दुनिया में होते हैं

जैसे असामयिक हुए नजदीकी लोगों की मृत्यु समाज में हो रहे कई  घृणित अपराध 

पर शास्त्र और बाबूजी यही कहतें हैं जो तुम्हारे बस में नहीं तुम उसका कुछ नहीं कर सकते

पर एक चीज जरूर करनी चाहिए वो है अपने निश्चित कर्त्तवयों का ईमानदारी से पालन अंतिम सांस तक  


अब जो बाकि का जीवन है 

चाहत यही है की अपने और अपनी मित्र द्वारा संचालित संस्थाओं के सदस्यों को एक माला के मोती जैसे पिरो के साथ में रखूं 

अपने परिवार और समाज के सभी सदस्यों के जिस रूप में संभव हो काम आ सकूँ 

और अपनी भाषा और तौर तरीकों से किसी को अनजाने में भी आहत न करूँ 

ईश्वर सबको अच्छी सेहत दे ताउम्र खुश रखें 

चलो आज की वार्तालाप और संवाद यहीं पर समेटतीं हूँ 

फिर मिलती हूँ अगले बरस कुछ और परिचर्चा के साथ 



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